Thursday, March 10, 2011

तिब्बत परेशांन है।

तिब्बत परेशां है
10मार्च, शाम हो चुकी है कुछ लिखने की कोशिश कर रहा हूं। जिससे ब्लाग पर कुछ प्रकाशित
करने में सझम हो सकूं। लेकिन लिखूं क्या?कुछ समझ में नहीं आता। रह रह कर मेरी आंखें
कलेंडर की एक ही तारीख की और चली जाती हैं। 10 मार्च .... कुछ कहना चाहता हूं लेकिन मेरा
मुह बंद पड़ा है उंगलियों ने हिम्मत उठाई है कुछ करने की। और मै मन के वशीकरण से थोड़ी देर
के लिए निजाद पा चुका हूं। मैने लिखना शुरू कर दिया है। अब आप अंदाजा लगा लीजिए
की 10 मार्च 1959 में तिब्बत के 14 गुरू दलाई लामा और उनकी जनता ने अपनी सांस्कृतिक,धार्मिक और राजनीतिक विरासत को बचाने के लिए कितनी हिम्मत से चीनी सेना का सामना
किया होगा। यह कल्पना करना भी शायद मेरी सोच की सभी परिभाषाओं के आगे शून्य हो जाती है।

एक बड़ा नरसंहार

अपने ही देश को रातो रात छोडने पर मजबूर होना ,भारत में शरण लेना। और भारत से अपने देश को
चीनी तानाशाह की गिरफत में फंसा देख कुछ न कर पाना। इस दर्द को दलाई लामा से बहतर कोई नहीं
ब्यान कर सकता। इसका अंदाजा लगाना हमारे या आपके बस की बात नहीं। लेकिन 1959 में जो भी
हुआ शायद वह जग जाहिर था इस दिन चीनी सेना का कहर खुलेआम मासूम तिब्बतियों पर बरपा।
सारा विश्व इस खूनी और अमानवीय हिंसा का तांडव चुप-चाप देखता रहा। सूत्रो की माने तो 10 मार्च 1959
को चीनी सेना द्वारा तकरीबन 80,000 से 85,000 हजार तिब्बतियों को मौत के घाट उतार दिया गया।
इस पर भी विश्व मौन रहा। मानवाधिकार की बातें हैं बातों का क्या?

मानवाधिकार की बातें करने वाला अमेरिका, इंग्लैंड, और अन्य वे देश जहंा लोकतंत्र की जमात बैठती है।
शायद इस बड़े नरसंहार को देखने के बाद भी शांत बैठे हुए थे। मानों मानवाधिकार के सक्त कानून
और इन अधिकारों को उल्लंघन करने पर केवल गरीब देश द्याना या अफ्रीका के अन्य गरीब देशों
पर ही कड़ी कार्यवाही की जा सकती हो। मानवाधिकार भी शक्तिशाली के आगे घुटने टेक देता हो।
इतने बड़े नरसंहार के बाद किसी ने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी। मानों सभी देश शीत निद्रंा में चले
गये हों। बड़ी-बड़ी बाते करने वाले विकसित देश कुछ कहने की हिम्मत भी न जुटा सके। और
तिब्बतमें खून दौर खुलेआम चलता रहा।

51वां विरोध प्रदर्शन ।
आज पूरे 51 साल हो चुके है तिब्बत के लोगों कों अपना देश छोड़े हुए। पूरे विश्व में जहां भी तिब्बत के
लोग रहते है आज के दिन चीन के प्रति विरोध प्रदर्शन करते है। ज्यादातर ये प्रदर्शन शांति मार्च के रूप
में ही दर्ज होते है। और प्रदर्शनकारी अहिंसा के सभी सूत्रों का पालन करते हुए दिखाई देते है। लेकिन शायद
अब गांधीजी के सत्य और अंहिसा के सिद्धांत बेकार हो गये हैं। इसके परिणाम आने वाले समय में क्या
होंगे इस सवाल का उत्तर भविष्य के गर्भ में ही छिपा है?

जरूरत है अब एक नई पहल की।

अब एक नई पहल की जरूरत है विश्व के सभी देश तिब्बत के पक्ष में आकर खड़े हांे और चीन को तिब्बत
पर कब्जा हटाने और तिब्बितयों पर जुर्म ढहानें से रोकें। यह सब कुछ केवल अमेरिका की पहल से नहीं
किया जा सकता। और अगर ऐसा हुआ तो विश्व में एक नया संदेश जाएगा। जहां लोग मावाधिकार
का कोई मतलब समझ पाएंगे। अगर विश्व में शांति और अहिंसा बरकरार रखनी हैं तो हमें महात्मा
गांधी के सिद्धांतोंको सुरक्षित और जीवंत रखने के लिए कुछ नये आदर्शों को विश्व के सामने रखना ही
होगा, और तिब्बत को एक स्वतंत्र देश की पहचान दिलानी होगी।

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