Monday, March 7, 2011

जिस्म मेरा टूट कर बिखरा तो ये आया खयाल

खत्म कैसे हो गया मेरा सफर समझा नहीं,
कौन मुझमें जी गया मेरी उमर समझा नहीं।

वक़्त ने कितना अजब धोखा दिया कि क्या कहूँ,
अपनी आँखों से मैं सब कुछ देखकर समझा नहीं।

कत्ल होना शाम को जिन्दा सहर को लौटना,
मैं कभी सूरज का यारों ये हुनर समझा नहीं।

उसने इक-पल भी मुझे तन्हा नहीं रहने दिया,
वो रहा मौजूद मुझमें मैं मगर समझा नहीं।


जिस्म मेरा टूट कर बिखरा तो ये आया खयाल
क्यूं कभी मैंने इसे मिट्टी का घर समझा नहीं।

खुद के होने का मुझे एहसास इब होता नहीं,
किसने कर डाला मुझे यूं बेअसर समझा नहीं।

मेरी किस्मत का सितारा प्यार से मिलता नहीं,

बात इतनी सी मगर मैं उम्रभर समझा नहीं।

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