Saturday, April 9, 2011

न ग़दर मचा, न लहू बहा, न हुआ कोई संग्राम रे

अन्ना... अन्ना....और अन्ना
न ग़दर मचा, न लहू बहा, न हुआ कोई संग्राम रे
चली तो गाँधी लहर चली हर शहर -शहर गाँव रे
गाँधी में था दम वंदे मातरम।

जंतर मंतर पर जो नजारा था मेने ऐसा नजारा
अपनी जिन्दगी में पहली बार देखा था ।
सब एक सुर में, ,एक लय में, एक साथ खड़े थे।
मानो गाँधी फ़िर हमारे बीच मौजूद हों।

रघुपति राघव का वो गायन, युवाओं का वह जोश
लोगो का हुजूम मानो भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म
करना चाहता हो।

लोगो कि वेदना यहाँ दिखाई दे रही थी।
गंगा और यमुना आज मुझे एक दिखाई दी।
मानो लग रहा था कि सालो पुराना भारत जाग गया हो।

सालो पहले ८ अप्रैल के दिन भगत सिंह ने
अस्सेम्ब्ली में बम्ब फेक कर इसकी शुरुवात
कर दी थी । गिरिफ्तारी दी थी, और देश को एक
नई चेतना भी।अन्ना और भगत सिंह दोनों ने ही
अपने- आप को तकलीफ दी । फर्क इतना है कि
अन्ना ने ७२ साल बाद ऐसा करने कि उम्मीद जताई,


जबकि भगत सिंह ने मात्र २३ साल कि
उम्र में ही इस बड़े कारनामे को अंजाम दिया था।
दोनों ही सम्मान के हकदार है। लेकिन भगत सिंह
के लिए ये मस्तक गर्व से उठ खड़ा होता है।

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