Sunday, October 31, 2010

मैं हूँ बचपन...

मैंने बचपन के बारे में सुना ,
असमंजश में पड़ गया
बच्चों की किलकारियां माँ को
एकाएक अपनी ओर खींच लेती है.

बच्चों को छाती से लगा,
माँ ख़ुशी से पागल हो जाती है.
ये बाते मुझें बेबाक कर जाती है.

ममतामयी होठों का माथे पर
चुम्बन लेकर पुचकारना
मुझें अजीब सा लगता है.

बच्चों की जरा सी कुनाहट से
किसी का उठ बैठना
इस बात पर मैं खिन्न हो जाता हूँ .

मैंने सुना है की माँ की गोद में सिर रखकर,
बच्चा चैन की नीद सो जाता है
मुझें यह बात बकवास लगती है.

उसका कारण है .
क्यूँकि में फुट- पाथ पर पैदा हुआ .

वह भी कोई माँ ही रही होगी,
जो मुझें फुट- पाथ पर छोड़ गई होगी,
जुलाई की गर्मियों में भूख प्यास से रोता मैं

वहां न कोई छायाँ थी और न कोई छत ...
लेकिन मेरे नसीब मैं एक फटा आँचल जरूर था,
जो मुझें कुछ शांति दे रहा था.

मैं भूखा रह कर पला,
मुझें चिपकने के लिए एक,
हरी और थकी छाती जरूर मिली
चाहे कुछ ही देर की लिए सही .

क्यूंकि वह भी गरीब थी
और मैं भी नादान,
मैं थोडा बड़ा हुआ
तो मेरे सामने एक औरत पड़ी थी,
मुझें पता नही मुझें पालने वाली
शायद
मेरी माँ रही होगी.


मैं लोगो के टुकड़ो पर पला बड़ा,
फिर पेट भरने के लिए रोड पर खड़ा हुआ
मेरे पेट मैं निवाला कैसे आये
धीरे -धीरे में सब सीख गया.

मैं फिर कभी रोड पर भीख मांगता नजर आया,
तो कभी ढाबो पर बर्तन मांजते,
कभी बूट पोलीस करते,
तो कभी सुनसान गलियों में कूड़ा बीनते.

मुझें लोगों से डाट खानी पड़ती,
मैं सिर नीचें कर वहां से चुपचाप चला

अचानक एक दिन ख्याल आया.
आखिर मैं हूँ कौन?

जबाब आया मैं हूँ बचपन
जो आज खुद को भूल गया.


अब कोई जगजीत
कागज की किश्ती,
ख्यालों में भी नही गायेगा।

क्यूँकि उस किश्ती के साथ मैं भी डूब गया
मैं हूँ बचपन मैं डूब गया.

1 comment:

  1. भाई सुनील ये जो .... लगा रहे हो इन्हें मत लगाओ. इनके बिना भी कविता सुंदर लगेगी. इससे पोस्ट को कुरूप हो रही है. कविता सुंदर है, सुंदर रचना पढाने के लिए शुक्रिया

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